कितने ही ख्वाबों को
यादों की जिल्द लगा
पलकों की कोरों पर
करीने से सहेजा है ...
जैसे अलमारी में
किताबें सजाता है कोई .
कितने ही ख्वाबों को
ताकीद की गिरह से बाँध
मन के खूंटे से
बाँध दिया है कस के ...
जैसे पगहे में
गाय बांधता है कोई .
कुछ सुर्ख-सियाह ख्वाब
ऐसे भी हैं बेचारे
जिन्हें हरदम बुनती रहती हूँ ..
जैसे ऊन सलाई और फंदों से
डिज़ाइन बुनता है कोई .
कुछ ख्वाबों को डालकर
अक्सर भूल जाती हूँ
तकिये के नीचे ..
चादर की तहों में ..
राशन की रसीदों की पीठ पर
या डायरी के पन्नों में .
कुछ चलते ही रहते हैं
फिल्म की तरह आँखों में
बिना इंटरवल ब्रेक के ...
कुछ डेली सोप की शक्ल
अख्तियार कर लेते हैं ...
रोज आते हैं, बिला नागा
तयशुदा वक्त पर दस्तक देने .
मेरी आँखों में
ख्वाबों का recurring deposit है
ऊपर वाला इन खातों पर
maturity date डालना
भूल गया है .