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मंगलवार, 31 जनवरी 2012

किरदार

चलो किरदार बदल लेते हैं......
कुछ दिन तुम मेरी तरह जीना
और मैं, तुम्हारी तरह मरूँगी.

तुम मेरी ज़िम्मेदारियाँ
कांधों पर उठा कर खीचना
मैं तुम्हारे रोकड़ बही से
अपने हिस्से का हिसाब माँगूंगी.

मेरे माज़ी के ज़ख़्म अपने सीने मे रख
कुछ देर तुम भी साँस लेना
और मैं....तुम्हारी तरह सब भूलकर
जीने का सलीका सीखूँगी-सिखाऊँगी.

सुनहरे लम्हे

अबकी बार आओ........
तो अपना male ego वाला कोट
उतार कर आना...........
वो रहता है ना तुम्हारे कांधे पर
तो मैं तुम्हारे दिल तक
नहीं पहुँच पाती.........

हाँ! दार्शनिक अंदाज़ का
वो अपना sun glass भी मत लगाना
क्योंकि मैं तुम्हारी आँखों में....
पढ़ना चाहती हूँ ........
तुम्हारा प्यार.

भूलना मत....
कलाई पर बाँध आना
वो बड़ी वाली .. सुनहरी घड़ी
शायद हम कुछ बड़े,
और सुनहरे लम्हे जी लें
............इसी बहाने ||

स्वेटर

सुनहरी ख्वाबों के धागे से
मेरे नाज़ुक एहसासों सा नर्म
तुम्हारे मिजाज़ सा गर्म...
मेरे इश्क़ से भी गहरे-
महरूनी रंग का स्वेटर बुना है

तुम्हारे इश्क़ के समंदर मे

जब बर्फ के क़तरे दिखाई दें
और जमने लगे रगों मे
हमारी मुहब्बत का लहू
कांधों पे डाल लेना इसे
गर्मास से ज़िंदा रहेंगे
............हम-तुम!!

बर्फ

सोचती हूँ ..
कि जिस अग्नि से
दग्ध होती हूँ
प्रतिपल......
उसकी कुछ आंच
तो ज़रूर पहुँचती होगी
तुम तक .
तो क्यों नहीं पिघलती
वो बर्फ....
जो तुमने ओढ़ रखी है.

सोचती हूँ ये भी
कि इस अग्नि में
और जलूँगी ....
तुम तक पहुँचने वाली आंच
कुछ तो बढ़ेगी
बर्फ कुछ तो पिघलेगी

मैं देखना चाहती हूँ
जमी हुई तुम्हारी
वो संवेदनाएं .....
जो सिर्फ मेरे लिए हैं ||

शनिवार, 28 जनवरी 2012

डोर

सुनो
ज़रा डोर थामो ना
पतंग की तरह
आसमान मे उड़ना चाहती हूँ.

सूरज के पास जा
पूछना चाहती हूँ ..
क्यों दबाए हो सीने मे
इतनी आग?
किसके विरह मे जल रहे हो
सदियों से....?

बादल भटकती रूह से
दिखाई देते हैं मुझे
उन्हें सहलाकर..उनके दर्द को
महसूस करना चाहती हूँ.
सीखना चाहती हूँ उनसे
कि कैसे चल पाते हैं वो
लेकर इतने आँसू?

दौड़कर हवा को
पकड़ लेना चाहती हूँ
ये पूछने को.. कि
किसकी छुअन से महक गयी है
..बावरी हो गयी है.

दूर देस से आए
पंछियों से भी काम है
थोड़ी सी प्रेम की उष्मा
भिजवानी है परदेसी तक
कि उसकी बर्फ बनी संवेदनाएँ
पिघल सकें.

मन के चरखे पर
अनवरत...यादों का धागा
कातने का हुनर
चाँद से सीखना है मुझे.

आसमान के दरवाज़े पर
गुज़ारिश की एक
चिट्ठी भी रखनी है
कि मुझे तकते हुए देखे
तो एक सितारा गिरा दे
और मैं माँग सकूँ
........अपनी चाहत ||

उत्तरायण

मेरे अंतस में
अपनी उजास .....
अपना हिस्सा छोड़
सुदूर दक्षिण को गये
बहुत दिन हुए सूर्य.

कर्क से मकर तक
अयन का छमाही रास्ता
सदियों लंबा कैसे हो गया
अब तो आकाश का सूर्य भी
संक्रांति पूर्ण कर.........
उत्तरायण हो गया है.
इससे पहले कि दिन
तप्त...दग्ध...और लंबे हों
लौट आओ....
कि मेरी आत्मा का
ये सूर्य मुमुक्षु है

चंपा ....मेरी सखी!

धूप का एक छोटा सा कतरा ...ज़मीन पर चुपचाप खड़ा  .....शायद देखने आया था कि शीत ने कितने ज़र्द पत्ते अपनी शाखों से जुदा किये हैं ....गुनगुनी सेंक की थोड़ी आस लिए पास चली आई मैं ...पीठ पर जैसे ही गर्माहट ने असर दिखाया तो कन्धों का दर्द महसूस होने लगा ...उसी से निजात पाने के लिए गर्दन ऊपर की थी मैंने ...अनमना.. उदास मन वहीँ अटक गया .....अरे! ये तो चंपा का वही पेड़ है ...जिसके फूलों की खुशबू मेरी यादों में बसती है ....उस एक पल की अनुभूति बाँटना चाहती हूँ ..............

चंपा ....मेरी सखी!
तुम्हें देख आकुल हूँ ...
विह्वल हूँ....
दुःसह शीत की पीड़ा ने
खींच लिया है हर आवरण
तुम्हारे सौंदर्य का..
छीन ली है तुमसे..
तुम्हारी पहचान.
सूख कर झर गये हैं..
हरियाए तुम्हारे पत्ते.
तुम्हारी सुगंध से महकता
विशिष्ट होने का परिचय देता
वो श्वेत पुष्प भी
तुमने आज नहीं पहना.
पत्रविहीन... पुष्पविहीन..
तुम्हारा तन ..तुम्हारी शाखें
और अपने अवशेषों के ढेर पर खड़ी तुम.....
जोगनसी ...बिरहन सी
खड़ी हो हाथ उठाए..
मानो प्रीत का हर ओस कन
समेट लोगी अंचल मे.
तुम्हारी शाखों मे ..
मेरे हाथों सी उंगलियाँ हैं
जिसकी पोरें अँखुआ गयी हैं
शीत के इस विरह के बाद
जब ऋतुराज आएगा.....
ये अंकुर फूटेंगे ..
भर उठोगी तुम हरीतिमा से.
तुम्हारी उँगलियों से ..
फिर झरेंगे फूल...
फिर बिखरेगी सुगंध ||

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